Bhagavad Gita: Chapter 3, Verse 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥32॥

ये-जो; तु–लेकिन; एतत्-इस; अभ्यसूयन्तः-दोषारोपण; न-नहीं; अनुतिष्ठन्ति–अनुसरण करते हैं; मे-मेरा; मतम्-उपदेश; सर्वज्ञान-सभी प्रकार का ज्ञान; विमूढान्-भ्रमित; तान्–उन्हें; विद्धि-जानो; नष्टान्–नाश होता है; अचेतसः-विवेकहीन।

Translation

BG 3.32: किन्तु जो मेरे उपदेशों में दोष ढूंढते हैं, वे ज्ञान से वंचित और विवेकहीन होते हैं, इन सिद्धान्तों की उपेक्षा करने से वे अपने विनाश का कारण बनते हैं।

Commentary

 श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत उपदेश हमारे कल्याण के लिए अति उपयुक्त हैं। हमारी मायाबद्ध बुद्धि में अनगिनत दोष हैं जिसके कारण हम भगवान के उपदेशों की महत्ता को समझने या उसकी सराहना करने में सक्षम नहीं होते। यदि ऐसा हो जाये तो परमात्मा और जीवात्मा के बीच क्या भेद रह जाएगा है? इसलिए गीता के दिव्य उपदेशों को स्वीकार करने के लिए श्रद्धा अनिवार्य है। जब हमारी बुद्धि इन्हें समझने की अपेक्षा इन उपदेशों में दोष ढूंढने लगती है तब हमें यह सोंचकर अपनी बुद्धि का समर्पण कर देना चाहिए-" श्रीकृष्ण ने ऐसा कहा है। इसमें अवश्य ही सत्यता है जिसे मैं अभी समझ नहीं सकता। अभी मुझे यह स्वीकार करना चाहिए और आध्यात्मिक साधना करनी चाहिए। इन उपदेशों को मैं तब समझ पाऊँगा जब मैं साधना द्वारा आध्यात्मिक पथ पर उन्नति कर लूंगा।" इसी मनोवृति को श्रद्धा कहते हैं।

 जगद्गुरु शंकराचार्य ने श्रद्धा की परिभाषा इस प्रकार से की है-" गुरु-वेदान्त-वाक्येशु दृढो विश्वासः" अर्थात् 'श्रद्धा गुरु और शास्त्रों के वचनों में दृढ़ विश्वास' है। चैतन्य महाप्रभु ने भी इसी प्रकार की व्याख्या की है-“श्रद्धा शब्दे विश्वास कहे सुदृढ निश्चय" (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 2.62) अर्थात् “श्रद्धा का अर्थ गुरु और भगवान में अटूट विश्वास होना है', भले ही हम वर्तमान में उनके उपदेशों को समझने में असमर्थ हैं। ब्रिटिश कवि अल्फ्रेड टेनिसन ने कहा था- "जहाँ हम सिद्ध नहीं कर सकते वहाँ केवल श्रद्धा द्वारा ही विश्वास को अंगीकार किया जा सकता है।" इसलिए श्रद्धा का अर्थ यह है कि भगवद्गीता के समझे जाने वाले सरल अंशों को विनम्रतापूर्वक आत्मसात् करते हुए और इसके कठिन अंशों को भी इस आशा के साथ स्वीकार करना चाहिए कि ये भी भविष्य में समझ में आ जायेंगे।

मायिक बुद्धि का एक मुख्य दोष अहंकार है। अहंकार के कारण जिसे वर्तमान में बुद्धि समझ नहीं सकती प्रायः उसे दोष युक्त मानकर अस्वीकार कर देती है। यद्यपि सर्वज्ञ भगवान के रूप में भगवान श्रीकृष्ण ने जीवात्मा के कल्याण हेतु अपने दिव्य उपदेश प्रकट किए हैं किन्तु मनुष्य उसमें अभी तक दोष ढूंढते हैं, जैसे-" भगवान स्वयं को सभी कुछ समर्पित करने के लिए क्यों कहते हैं? क्या भगवान लोभी हैं? क्या वे अहंकारी हैं जो अर्जुन को अपनी उपासना करने को कहते हैं?" 

श्रीकृष्ण कहते हैं-"ऐसे लोग विवेक शून्य हैं क्योंकि वे शुद्ध और अशुद्ध, धर्म और अधर्म सृष्टि के कर्ता और कृत्य, परम स्वामी और दास के बीच के अन्तर को समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे मनुष्य अपने विनाश का कारण बनते हैं" क्योंकि वे परम मुक्ति के मार्ग को अस्वीकार कर देते हैं और जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते हैं।