युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥12॥
युक्तः-अपनी चेतना को भगवान में एकीकृत करने वाला; कर्म-फलम्-सभी कर्मों के फल; त्यक्त्वा-त्यागकर; शान्तिम्-पूर्ण शान्ति; आप्नोति-प्राप्त करता है; नैष्ठिकीम्-अनंत काल तक; अयुक्तः-वह जिसकी चेतना भगवान में एकीकृत न हो; कामकारेण–कामनाओं से प्रेरित होकर; फले–परिणाम में; सक्तः-आसक्त; निबध्यते-बंधता है।
Translation
BG 5.12: कर्मयोगी अपने समस्त कमर्फलों को भगवान को अर्पित कर परम शांति प्राप्त कर लेते हैं, जबकि वे जो कामनायुक्त होकर निजी स्वार्थों से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, वे बंधनों में पड़ जाते हैं क्योंकि वे कमर्फलों में आसक्त होकर कर्म करते हैं।
Commentary
यह कैसे मान लिया जाए कि एक जैसा कर्म करने से कुछ लोग तो माया के बंधन में पड़ जाते हैं और कुछ माया के बंधनों से मुक्त रहते हैं? श्रीकृष्ण इसका उत्तर इस श्लोक में देते हैं। वे मनुष्य जो भौतिक पदार्थो के प्रति अनासक्त हैं वे कभी कर्म बंधनों में नहीं बंधते किन्तु जो निजी लाभ और कामना युक्त होकर भौतिक सुखों का भोग करना चाहते हैं वे कर्मफलों के बंधनों में पड़ जाते हैं। युक्त शब्द का अर्थ 'भगवच्चेतना से जुड़ना' है। इसका अर्थ 'हृदय के शुद्धिकरण के अतिरिक्त किसी फल की इच्छा न करना' भी होता है। युक्त पुरुष वे हैं जो अपने कर्मफलों का त्याग करते हैं और इसके स्थान पर आत्मशुद्धि के उद्देश्य से कार्य करते हैं। इसलिए वे शीघ्र ही दिव्य चेतना को प्राप्त कर लेते हैं।
दूसरी ओर अयुक्तः का अर्थ 'भगवच्चेतना से युक्त न होना' है। इसे इस प्रकार से भी अभिव्यक्त कर सकते हैं कि-'लौकिक या सांसारिक सुखों की कामना आत्मा के लिए हानिकारक है।' ऐसे लोग अपने कर्मों का फल की तिब्र आकांक्षा करते हैं। इस भाव से सम्पन्न किए गए कर्म इन 'अयुक्त' पुरुषों को 'संसार' या जन्म-मरण के चक्र में डाल देते हैं।