Bhagavad Gita: Chapter 5, Verse 26

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥26॥

काम-इच्छाएँ; क्रोध-क्रोध; वियुक्तानाम् वे जो मुक्त हैं; यतीनाम्-संत महापुरुष; यत-चेतसाम्-आत्मलीन और मन पर नियंत्रण रखने वाला; अभितः-सभी ओर से; ब्रह्म-आध्यात्मिक; निर्वाणम्-भौतिक जीवन से मुक्ति; वर्तते-होती है। विदित-आत्मनाम्-वे जो आत्मलीन हैं।

Translation

BG 5.26: ऐसे संन्यासी भी जो सतत प्रयास से क्रोध और काम वासनाओं पर विजय पा लेते हैं एवं जो अपने मन को वश में कर आत्मलीन हो जाते हैं, वे भी माया के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।

Commentary

श्लोक 5.2 में की गयी व्याख्या के अनुसार कर्मयोग अधिकतर लोगों के लिए सरल मार्ग है और इसलिए श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को भी इसका अनुसरण करने की अनुशंसा की गयी है। किन्तु फिर भी कुछ लोग जो वास्तव में संसार से विरक्त हो जाते हैं, उनके लिए कर्म संन्यास भी उपयुक्त है। इसका एक लाभ यह है कि इसमें समय और ऊर्जा का सांसारिक कर्त्तव्यों के प्रति गमन नहीं होता और व्यक्ति आध्यात्मिक अभ्यास के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध हो सकता है।

 इतिहास में अनेक कर्मसंन्यासियों का उल्लेख मिलता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसे सच्चे संन्यासी आध्यात्मिक क्षेत्र में तीव्रता से प्रगति करते हैं और अनंत शांति प्राप्त करते हैं। कामनाओं और क्रोध का दमन कर तथा मन को वश में करके वे इस लोक और परलोक दोनों में परम शांति प्राप्त करते हैं। हम प्रायः इस मिथ्या धारणा को प्रश्रय देते हैं कि बाह्य परिस्थितियाँ ही हमारे जीवन में अशांति के लिए दोषी हैं और हम यह प्रतीक्षा करते हैं कि परिस्थितियाँ कब अनुकूल होंगी। किन्तु शांति बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होती क्योंकि यह मन, बुद्धि और इन्द्रियों की शुद्धि का विषय है। 

संन्यासी अपने मन और विचारों को भीतर की ओर मोड़ लेते हैं और उसी शांति के महासागर में गोता लगाते हैं। ऐसा करने से वे बाह्य परिस्थितियों से उदासीन हो जाते हैं। ऐसे व्यवस्थित अंतःकरण के साथ वे सर्वत्र उसी शांति का अनुभव करते हैं और इस संसार में से भी मुक्त हो जाते हैं।